मुहम्मद खान ( उर्दू : شیر مُحمّد خان ), ( पंजाबी , شیر محمد خان ), अपने उपनाम इब्न-ए-इंशा से बेहतर जाने जाते हैं , ( उर्दू : اِبنِ اِنشا ), ( पंजाबी , ابن ا) نشا ) (15 जून 1927 - 11 जनवरी 1978) [1] [2] [3] एक पाकिस्तानी उर्दू कवि , हास्यकार, यात्रा वृतांत लेखक और समाचार पत्र स्तंभकार थे । अपनी शायरी के साथ-साथ उन्हें उर्दू के सर्वश्रेष्ठ हास्यकारों में से एक माना जाता था । [1] [3] उनकी कविता में शब्दों और निर्माण के उपयोग में अमीर खुसरो की याद दिलाने वाली भाषा के साथ एक विशिष्ट शब्दावली है जो आमतौर पर हिंदी-उर्दू भाषाओं के जटिल बोलियों और उनके रूपों और काव्य शैली में सुनी जाती है। युवा कवियों की पीढ़ियों पर प्रभाव है।
इब्न-ए-इंशा ابنِ اِنشا
जन्मशेर मुहम्मद खान 15 जून 1927 फिल्लौर , पंजाब , ब्रिटिश भारत
मृत11 जनवरी 1978 (उम्र 50)
लंदन , इंग्लैंडउपनामइंशापेशाउर्दू कवि , हास्यकार, यात्रा वृतांत लेखक और समाचार पत्र स्तंभकारराष्ट्रीयतापाकिस्तानीशैलीग़ज़लउल्लेखनीय पुरस्कार1978 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस अवार्डबच्चेरूमी इंशा (मृत्यु 16 अक्टूबर 2017) और सादी इंशा
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना
उस नार में ऐसा रूप न था जिस रूप से दिन की धूप दबे
इस शहर में क्या क्या गोरी है महताब-रुख़े गुलनार-लबे
कुछ बात थी उस की बातों में कुछ भेद थे उस की चितवन में
वही भेद कि जोत जगाते हैं किसी चाहने वाले के मन में
उसे अपना बनाने की धुन में हुआ आप ही आप से बेगाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
ना चंचल खेल जवानी के ना प्यार की अल्हड़ घातें थीं
बस राह में उन का मिलना था या फ़ोन पे उन की बातें थीं
इस इश्क़ पे हम भी हँसते थे बे-हासिल सा बे-हासिल था
इक ज़ोर बिफरते सागर में ना कश्ती थी ना साहिल था
जो बात थी इन के जी में थी जो भेद था यकसर अन-जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इक रोज़ मगर बरखा-रुत में वो भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच समुंदर के ये देखने वालों ने देखा
मस्ताना हाथ में हाथ दिए ये एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई जब सैलानी घर लौट गए
क्या रात थी वो जी चाहता है उस रात पे लिक्खें अफ़साना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
हाँ उम्र का साथ निभाने के थे अहद बहुत पैमान बहुत
वो जिन पे भरोसा करने में कुछ सूद नहीं नुक़सान बहुत
वो नार ये कह कर दूर हुई 'मजबूरी साजन मजबूरी'
ये वहशत से रंजूर हुए और रंजूरी सी रंजूरी?
उस रोज़ हमें मालूम हुआ उस शख़्स का मुश्किल समझाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
गो आग से छाती जलती थी गो आँख से दरिया बहता था
हर एक से दुख नहीं कहता था चुप रहता था ग़म सहता था
नादान हैं वो जो छेड़ते हैं इस आलम में नादानों को
उस शख़्स से एक जवाब मिला सब अपनों को बेगानों को
'कुछ और कहो तो सुनता हूँ इस बाब में कुछ मत फ़रमाना'
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
अब आगे का तहक़ीक़ नहीं गो सुनने को हम सुनते थे
उस नार की जो जो बातें थीं उस नार के जो जो क़िस्से थे
इक शाम जो उस को बुलवाया कुछ समझाया बेचारे ने
उस रात ये क़िस्सा पाक किया कुछ खा ही लिया दुखयारे ने
क्या बात हुई किस तौर हुई अख़बार से लोगों ने जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक इंशा नाम का दीवाना
हर बात की खोज तो ठीक नहीं तुम हम को कहानी कहने दो
उस नार का नाम मक़ाम है क्या इस बात पे पर्दा रहने दो
हम से भी तो सौदा मुमकिन है तुम से भी जफ़ा हो सकती है
ये अपना बयाँ हो सकता है ये अपनी कथा हो हो सकती है
वो नार भी आख़िर पछताई किस काम का ऐसा पछताना?
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
#हिंदी
#कविता
#हिंदी_कविता_वीडियो
#कवि
#कविसम्मेलन
#कविधारा
#viral
#लेखक
#कविताएं
#उर्दू
#उर्दूशायरी
#काव्य
#प्रेम
#रस
#इब्नए इंशा
Ещё видео!