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⚡ आचार्य प्रशांत कौन हैं?
अध्यात्म की दृष्टि कहेगी कि आचार्य प्रशांत वेदांत मर्मज्ञ हैं, जिन्होंने जनसामान्य में भगवद्गीता, उपनिषदों ऋषियों की बोधवाणी को पुनर्जीवित किया है। उनकी वाणी में आकाश मुखरित होता है।
और सर्वसामान्य की दृष्टि कहेगी कि आचार्य प्रशांत प्रकृति और पशुओं की रक्षा हेतु सक्रिय, युवाओं में प्रकाश तथा ऊर्जा के संचारक, तथा प्रत्येक जीव की भौतिक स्वतंत्रता व आत्यंतिक मुक्ति के लिए संघर्षरत एक ज़मीनी संघर्षकर्ता हैं।
संक्षेप में कहें तो,
आचार्य प्रशांत उस बिंदु का नाम हैं जहाँ धरती आकाश से मिलती है!
आइ.आइ.टी. दिल्ली एवं आइ.आइ.एम अहमदाबाद से शिक्षाप्राप्त आचार्य प्रशांत, एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी भी रह चुके हैं।
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वीडियो जानकारी: शास्त्र कौमुदी, 17.04.2022, ग्रेटर नॉएडा
प्रसंग:
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
हे कुन्तीपुत्र, इन्द्रियों और विषयों का संस्पर्श ही शीत-उष्ण और सुख-दुःख का देने वाला है।
वे आते हैं और नष्ट हो जाते हैं, इसलिए अनित्य हैं। अतः हे अर्जुन, तुम तितिक्षा दर्शाओ।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १४)
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।
हे पुरुष श्रेष्ठ, ये शितोष्णादि जिस धीर व्यक्ति को व्यथित नहीं कर पाते,
सुख-दुःख में एक सा रहने वाला वह व्यक्ति आनंद अमृत का अधिकारी होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १५)
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।
असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है, परन्तु सत् वस्तु का कभी अभाव नहीं है,
तत्त्वज्ञानियों के द्वारा इन दोनों का स्वरूप देखा गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १६)
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।
जिसके द्वारा यह समस्त संसार व्याप्त है, उसी को विनाश-रहित अर्थात नित्य जानो।
कोई भी इस नित्य आत्मा का विनाश करने में समर्थ नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १७)
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।
नित्य, अविनाशी प्रत्याक्षादि प्रमाणों के अगोचर, शरीर धारण करने वाले इस जीवात्मा के
ये सब शरीर विनाशशील कहे गए हैं। हे अर्जुन, अतएव तुम युद्ध करो।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १८)
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
जो व्यक्ति आत्मा को मारने वाला जानता है और जो व्यक्ति उसे मृत समझता है
वह दोनों ही नहीं जानते। ना आत्मा मारता है ना मरता है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १९)
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
यह आत्मा कभी जन्म ग्रहण नहीं करता या मरता भी नहीं है अथवा ऐसा भी नहीं कि
एक बार होकर फिर नहीं होता। जन्म-रहित, मृत्यु-रहित, नित्य तथा सनातन यह आत्मा
देह के हत होने पर अर्थात् नष्ट होने पर हत नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक २०)
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।
जो इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, त्रिकाल में परिणाम-शून्य, जन्म-रहित, क्षयशून्य जानता है,
हे पार्थ, वह व्यक्ति किस प्रकार किसका वध कराता या किसका वध करता है?
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक २१)
(गीता-1) अर्जुन जैसा हाल हमारा || आचार्य प्रशांत, गीता समागम (2022)
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(गीता-2) अर्जुन का संघर्ष कृष्ण से || आचार्य प्रशांत, गीता समागम (2022)
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(गीता-3) जब सत्य गरजता है || आचार्य प्रशांत, गीता समागम (2022)
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संगीत: मिलिंद दाते
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