1960 में प्रदर्शित फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हिंदुस्तान की सबसे पहली फ़िल्म थी जो इतनी भव्यता के लबादे को ओढ़े हुए थी. सलीम और अनारकली की यह कहानी एक कल्पना है या हकीक़त? जो भी है, यह उस इंसान के ज़ज्बे को सलाम करती है जो 16 साल तक एक चीज़ के पीछे पड़ा रहा और जिसका नाम था करीमुद्दीन आसिफ़, जिसे दुनिया के आसिफ़ के नाम से जानती है. फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ का फ़साना यह है कि बादशाह जलालुद्दीन अकबर औलाद की चाह में आगरा से चलकर ग़रीब नवाज़ मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत करने अजमेर जाता है. सूफी की नज़रें इनायत होती हैं और अकबर की बेग़म को एक बेटा होता है जिसका नाम सलीम रखा जाता है. अकबर उसे प्यार से ग़रीब नवाज़ की रहमत मानते हुए शेखू कहकर बुलाता है. जिस बांदी ने अकबर को बच्चे के होने का पैगाम दिया था, उसे बादशाह सलामत अपने गले से मोतियों का हार बतौर शुकराना देते हैं और उससे कभी भी कोई ख्वाहिश मांगने को कह देते हैं. बांदी उस वक़्त तो हार से ही ख़ुश हो जाती है और कुछ नहीं मांगती. इसी बांदी की बेटी आगे चलकर अनारकली बनती है जिससे सलीम को मुहब्बत हो जाती है. अकबर को यह मुहब्बत नागवार है. सलीम को अकबर की बात नामंज़ूर है. सलीम को कैद कर लिया जाता है और उसे एक ही बात पर माफ़ी मंज़ूर की जाती है कि वह अनारकली को भूल जाए. उधर, अनारकली को बादशाह मौत की सज़ा की तौर पर जिंदा दीवार में चुनवा देने की बात करता है. अनारकली की मां अकबर से अधूरी ख्वाहिश को पूरा करने की मांग कर उठती है. अकबर अनारकली को छोड़ देता है और एक सौदे के तहत मां-बेटी को कहीं दूर गुमनामी की जिंदगी की ओर धकेल देता है. क़िस्सा इतना ही है. मुग़ल-ए-आज़म के संवाद लिखने के लिए डायरेक्टर के आसिफ़ ने चार लोगों से संपर्क किया. ये थे कमाल अमरोही, वजाहत मिर्ज़ा, अहसान मिर्ज़ा और अमानउल्लाह खान. जानकारी की बात यह भी है कि लाहौर में एक बाज़ार है जिसका नाम है ‘अनारकली बाज़ार.’ वहां एक मज़ार भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह अनारकली की है. मुग़ल-ए-आज़म उस दौर की सबसे महंगी फिल्म थी. तकरीबन डेढ़ करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे इस पर. दरअसल, के आसिफ़ दीवाने थे और उन्होंने फिल्म पर दीवानों की तरह पैसा लगाया था. सेट, कॉस्टयूम और सिनेमेटोग्राफी. सब एक से एक शानदार. जब आसिफ़ का बैंक अकाउंट ख़ाली हो गया तब किस्मत से रंगमंच के ‘सिकंदर’ पृथ्वीराज कपूर ने शापूरजी पालूनजी मिस्त्री समूह के मुखिया शापूरजी मिस्त्री को इसमें यह कहकर पैसा लगवाने के लिए राज़ी कर लिया कि फ़िल्म महज़ एक फिल्म नहीं बल्कि हिंदुस्तानी सिनेमा की शाहकार होगी. इसके बाद के आसिफ को फिर पैसे की क़िल्लत नहीं हुई. यानी ‘सिकंदर’ ने ‘अकबर’ पर दांव खेला था और बाज़ी सफल भी रही!. मुग़ल-ए-आज़म का संगीत उस फिल्म जितना ही भव्य है. नौशाद ने लता मंगेशकर की आवाज़ के साथ उस कारीगरी को अंजाम दिया कि दुनिया देखती रह गयी. ‘प्यार किया तो डरना क्या’ गाने को शकील बदायूंनी साहब से 105 बार दुरुस्त करवाया, ख़ुद भी बैठे. गाने में गूंज (इको) का असर लाने के लिए लता जी से बाथरूम में गवाया. चूंकि इस फिल्म के बनने में काफ़ी समय लगा था तो कई दिलचस्प किस्स्से भी पैदा हो गए. अकबर के गेटअप में आने के लिए जब पृथ्वीराज कपूर मेकअप रूम में जाते तो खुद ही बोलने लगते, ‘पृथ्वीराज कपूर जा रहा है.’ जब अकबर बनकर निकलते तो आवाज़ लगती, ‘अकबर आ रहा है.’ ठुमरी ‘मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे... की कोरियोग्राफी के लिए नौशाद ने आसिफ साहब को लच्छू महाराज का नाम सुझाया. ठुमरी सुनकर लच्छू महाराज रोने लगे. तब आसिफ ने नौशाद को किनारे लेकर कहा, ‘अमां ये क्या ड्रामा है. ये क्यूं रो रहे हैं’. इस पर नौशाद बोले, ‘वाजिद अली शाह के दरबार में इनके बाप जो थे, ये आस्ताई यानी ठुमरी की शुरुआत उनकी थी. आस्ताई उनकी ली है मैंने. दोनों का इश्क एक वक्त परवान पर था. लेकिन बताते हैं कि मधुबाला के पिता असल के ‘अकबर’ बन गए और बीच में दीवार ख़ड़ी कर दी. बाद में हालात इस कदर बिगड़ गए कि दोनों सेट पर एक दूसरे से बात भी नहीं करते थे. दिलीप कुमार असल जिंदगी में सलीम थे. उन्होंने कोर्ट में सबके सामने सरेआम ऐलान कर दिया था कि वे मधुबाला से बेहद मुहब्बत करते हैं और जब तक जिंदा रहेंगे, मुहब्बत करते रहेंगे. फिल्म के रिलीज़ होने से कुछ पहले दिलीप साहब और आसिफ़ साहब में झगड़ा हो गया था. दरअसल, आसिफ़ साहब की बेग़म दिलीप को मानती थीं. मियां-बीवी के झगड़े को निपटाने एक बार दिलीप साहब उनके घर चले गए. बताते हैं कि आसिफ साहब ने यह कहकर दिलीप कुमार को रोक दिया कि वे अपने स्टारडम को उनके घर में न लायें. इससे दिलीप कुमार इतने आहत हुए कि फिल्म के रिलीज़ होने पर उसे देखने भी नहीं गए. उन्होंने इसे तकरीबन 19 साल बाद देखा. फिल्म में कुछ झोल भी थे. जैसे ठुमरी का इस्तेमाल. दरअसल, ठुमरी उस काल में नहीं थी. यह तो उन्नीसवीं शताब्दी के लखनऊ घरानों में पैदा हुई जिसे वाजिद अली शाह ने अमर दिया था. फिल्म के एक शॉट में मुग़लिया सेना जिस रास्ते पर चलकर किले में दाखिल होती दिखती है वह पक्की सड़क थी जबकि डामर का उस वक्त तक आविष्कार ही नहीं हुआ था. जानकर यह भी बताते हैं कि वह शीशमहल जिसमें ‘प्यार किया किया तो डरना क्या...’ फ़िल्माया गया था, उस तरह के वास्तव में मुग़ल रानियों के गुसलखाने हुआ करते थे. जयपुर के जिस आमेर के किले में फिल्म की शूटिंग हुई थी वहां का शीशमहल काफ़ी छोटा है इसलिए शीशमहल का सेट लगवाया गया था. दूसरी तरफ़ यह बात सही है कि अकबर और सलीम के बीच में एक जंग तो हुई थी पर उसका कारण अनारकली क़तई नहीं थी. सलीम, यानी जहांगीर, इतना भी सरल नहीं था जितना कि उसे फिल्म में दिखाया गया था. सलीम शराबनोशी का मारा था. इन सब बातों के अलावा जो बात याद रखी जानी चाहिए वह यह है कि के आसिफ़ ने सलीम को जोधा का बेटा बताया था. इतिहासकारों की इस पर अलग-अलग राय है. मुग़ल-ए-आज़म पांच अगस्त 1960 को देशभर के कुल 150 सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी.
के.आसिफ की शाहकार यादगार 'मुगल-ए-आज़म'
Теги
news24X7entertainmentMadhubalamadhubala moviemadhubala moviesmadhubala newsmadhubala songsmadhubala videomadhubala husbandmadhubala death reasonmadhubala biographymadhubala in hindidoodlegoogle doodleAnarkaliJab Pyar Kiya to Darna KyaMugal-e-AzamK AsifBollywoodDilip KumarPrithvi Raj KapoorMughal-E-Azam MakingNaushadMohammad RafiBade Ghulam Ali KhanLata MangeshkarBollywood News In HindiEntertainment News In HIndi