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Dileep Choudhary Sujas
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बड़गुजर क्षत्रियों का अधिपत्य: ज्ञात इतिहास के अनुसार भांडारेज पर बड़गुजर क्षत्रियों का अधिपत्य था. 11 वीं शताब्दी के आस-पास ढूंढाड़ में कछवाहा राजवंश के संस्थापक दुलहराय ने बढगूजरों को परास्त कर दौसा पर अधिकार के साथ भांडारेज पर भी अधिकार कर लिया. आमेर शासक मानसिंह प्रथम के समय उनके छोटे भाई माधो सिंह ने, जो मुगल दरबार में मनसबदार और भानगढ़ के शासक थे, बड़गुजर क्षत्रियों से प्रसन्न होकर उन्हें फिर से भांडारेज की जागीर दिलवा दी|
कुम्भाणी उपशाखा का अधिकार : तदनन्तर भांडारेज पर कछवाहों की कुम्भाणी उपशाखा का अधिकार रहा. ये कुम्भाणी आमेर के 11 वें शासक जूणसी के वंशज थे. भांडारेज के दीपसिंह कुम्भाणी सवाई जयसिंह के सामंत और सेनानायक थे. जाट शासकों के विरुद्ध अभियान में विशेषकर भुसावर परगना के संघर्ष और थून की गढ़ी के घेरे के समय दीपसिंह कुम्भाणी जयपुर की सेना के स्तम्भ थे. दीपसिंह कुम्भाणी के भाई दौलत सिंह का मालवा के तीसरी सूबेदारी के दौरान 10 मार्च 1732 को सवाई जयसिंह की छावनी खिजुरिया (मंदसौर) में दौलत सिंह कुम्भाणी की उपस्थिति का साक्ष्य मिलता है|
भांडारेज राजावतों के अधिकार में: कुम्भाणीयों के बाद भांडारेज राजावतों के अधिकार में आ गया तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के के बाद विलीनीकरण तक यह धूला संस्थान का क़स्बा था मांवडा - मंढोली को विषयवस्तु बनाकर लिखे गए धूला इतिहास 'कूर्म-विजय' में उल्लेख है कि बूंदी अभियान के सिलसिले में दलेलसिंह राजावत की सेवाओं से प्रसन्न होकर सवाई जयसिंह ने उन्हें दो परगने - भांडारेज और खेड़ा बख्शे|
दलेलसिंह राजावत का मांवडा-मंढोली युद्ध में प्राणोत्सर्ग: सवाई ईश्वरी सिंह के शासनकाल में राव दलेलसिंह ने राजमहल की लड़ाई सहित अनेक युद्धों में भाग लिया. तत्पश्चात सवाई माधव सिंह प्रथम के शासनकाल में जयपुर रियासत और भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह के बीच 14 दिसंबर 1767 में नीम का थाना के पास मांवडा-मंढोली नामक स्थान पर भीषण युद्ध लड़ा गया, जिसमें जयपुर की सेना का नेतृतव वयोवृद्ध राव दलेलसिंह ने किया। इस युद्ध में दलेल सिंह ने अपने कुंवर लक्षमण सिंह और मात्र 11 पौत्र भंवर राजसिंह सहित लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की. इस प्रकार मांवडा-मंढोली के रणक्षेत्र में धूला (भांडारेज) की एकसाथ पीढ़ियां काम आईं|
भांडारेज की एक अनमोल धरोहर यहाँ की कुम्भाणी शासकों दीपसिंह कुम्भाणी व दौलतसिंह कुम्भाणी की विक्रम संवत 1789 (1732 ई.) में निर्मित बावड़ी है. इस बावड़ी के निर्माण के शिलालेख में नंदा दरोगा नाम का भी उल्लेख है|
बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुँओं , तालाबों या कुण्डो को कहते हैं जिन के जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का लम्बा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को ‘कल्याणी’ या पुष्करणी, मराठी में ‘बारव’ तथा गुजराती में ‘वाव’ कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं, एक नाम है-वापी। इनका एक प्राचीन नाम ‘दीर्घा’ भी था- जो बाद में ‘गैलरी’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं।
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