एक दिन, शांतनु ने सत्यवती को देखा और उससे प्रेम करने लगे। उन्होंने सत्यवती के पिता के पास जाकर विवाह के लिए उसका हाथ मांगा। जब मछुआरों के मुखिया दासा, जो अपने आप में एक छोटा-मोटा राजा था, ने सम्राट को अपनी दत्तक पुत्री का हाथ मांगते देखा, तो उसे यह सौदा करने का अच्छा मौका नजर आया।
वह बोला, ‘मैं आपसे अपनी पुत्री का विवाह तभी कर सकता हूं, अगर उसकी संतान कुरु वंश का उत्तराधिकारी हो।’ शांतनु ने कहा, ‘यह संभव नहीं है। मैंने पहले ही अपने पुत्र देवव्रत को गद्दी सौंप दी है। वह कुरु वंश पर राज करने के लिए सबसे बेहतर शासक है।’
चतुर मछुआरे ने राजा की ओर देखा तो उसे लगा कि वह पूरी तरह प्रेम में डूबे हुए हैं। वह बोला, ‘फिर मेरी बेटी को भूल जाइए।’ शांतनु ने उससे प्रार्थना की। उन्होंने जितनी ज्यादा विनती की, मछुआरे को उतनी ही आशा नजर आने लगी। उसे कांटे में बड़ी मछली फंसती दिख रही थी। वह बोला, ‘यह आपके ऊपर है। अगर आप मेरी बेटी को चाहते हैं तो उसकी संतान को राजा बनाना ही होगा। वरना, खुशी-खुशी अपने महल लौट जाइए।’
सच्चाई का पता लगाने देवव्रत खुद वहां गए। दासा ने कहा, ‘राजा मेरी बेटी को चाहते हैं। मैंने बस इतना कहा है कि मेरी बेटी की संतान को ही भविष्य में राजा बनना चाहिए। यह एक मामूली सी शर्त है। बस आप इसके आड़े आ रहे हैं।’ देवव्रत ने कहा, ‘इसमें कोई समस्या नहीं है। मैं वचन देता हूं कि मैं कभी राजा नहीं बनूंगा। सत्यवती के बच्चे ही राजा बनेंगे।
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